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लेख-निबंध >> कल्पतरु की उत्सवलीला

कल्पतरु की उत्सवलीला

कृष्णबिहारी मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 85
आईएसबीएन :8126310170

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श्री रामकृष्ण परमहंस के जीवन प्रसंग पर केन्द्रित, अब तक प्रकाशित साहित्य से सर्वथा भिन्न यह प्रस्तुति अपनी सहजता और लालित्य में विशिष्ट है।



उन्नीसवीं शताब्दी के बौद्धिक जगत् के शीर्ष पुरुष, यह सोचते कि पाठशाला से दूर रहकर श्री रामकृष्ण परमहंस ने जो विद्या-प्रकाश उपलब्ध किया है, उसके सामने हम सबका अर्जित विद्या–दर्प कितना श्रीहीन और बौना है, निपढ़ परमहंस का अनुगत बनने को निरुपाय थे। नवजागरण के शीर्ष नायक ब्रह्मानन्द केशवचन्द्र सेन परमहंसदेव की आध्यात्मिक विभूति के अप्रतिम प्रवक्ता बन गये; अशूद्र व्रतिग्राही नैष्ठिक ब्राह्मण महामनीषी पद्यलोचन पण्डित ने रामकृष्णदेव का, दक्षिणेश्वर काली मन्दिर की यात्रा का नेवता स्वीकारते उल्लसित कण्ठ से आश्वासन दिया था, ‘ओ साघु मानुष, तुम्हारे साथ मैं चाण्डाल के घर भोजन कर सकता हूँ तुम्हारे सान्निध्य में शुचिता-अशुचिता की भिति ढह जाएगी, तुम्हारी उपस्थिति में मात्र पवित्रता ही टिकी रह जाती है, शेष सारा कलुष जलकर क्षार हो जाता है। जहाँ तुम रहोगे, वहाँ केवट के मन्दिर की धूल और चाण्डाल के घर का आहार मेरे ब्राह्मणत्व को प्रदूषित कैसे कर सकता है ?’ परमहंसदेव की दैवी उपलब्धि के साक्षात्कार से स्फुरित वह उद्भावना थी, वर्द्धमान राज्य के प्रधान पण्डित शास्त्रवेत्ता पद्यलोचन पण्डित की।

शास्त्र–ज्ञान का उद्धत दर्प ही केवल, अध्यात्म–विभूति के समक्ष, नहीं नमित हुआ था, तन्त्र-गुरु योगेश्वरी भैरवी और तत्वज्ञ वेदान्त-गुरु तोतापुरी दीक्षा-क्रिया का महत् दायित्व पूरा कर, एक अवधि के बाद, जब विदा होने लगे तो शिष्य की असाधारण आध्यात्मिक उपलब्धि के सामने शिष्य की तरह विनत थे; और शिष्य में अपनी दीक्षा का काम्य परिणाम-प्रकाश लक्ष्य कर कृतार्थता–प्रीत हो शिष्य को विधिवत पूजकर विलग हुए। शास्त्रज्ञ पण्डितों और विशिष्ट साधकों–गुरुओं की शास्त्रीय सम्पदाकी ज्योति रामकृष्ण परमंहस की लीला में अहर्निश थिरक रही थी। शास्त्रीय पोथियों को बिना स्पर्श किये परमंहस का लीला-प्रसंग उसी आलोक से अनुशासित था। उस काल के नवजागरण से युक्त धार्मिक, आध्यात्मिक सांस्कृतिक नायक वेद-उपनिषद की अभिज्ञता के आधार पर तर्क के तीर से तमस् से लड़ रहे थे। वेद–उपनिषद से निपट अपरिचित श्री रामकृष्णदेव औपनिषदिक ऋषियों की तरह मेधा, बहुश्रुतता और तर्क को सत्योपलब्धि के लिए अपर्याप्त ही नहीं, बाधक मानते थे।1 इसलिए अपनी आराध्या भवतारिणी माँ से आर्त्तस्वर में प्रार्थना की थी, ‘माँ, मेरी तर्क–बुद्धि पर वज्ज्रपात कर दो ताकि तुम्हारे रूप लावण्य को अहर्निश देखता रहूँ।’

और बौद्धिक तर्क-वितर्क से जनमे उन्नीसवीं शताब्दी के सघन तमस में परमहंस श्री रामकृष्णदेव ने आस्था की बाती जलायी। वह एक अप्रतिम उजास थी, नवजागरण को सटीक रह से गत्वर करनेवाली जो बौद्धिक नायकों के लिए विस्मयकारी और सामान्य भारतीय मानुष-मानस के लिए सजातीय और आतमीय थी।

साम्राज्यशाही अभिशाप के दबाव ने भारतीय जीवन के स्वकीय व्याकरण को अपने उपभोक्ता-उत्पात से छिन्न-भिन्न कर दिया था। भारत की सनातन अस्मिता पर वह पूर्व–अपरिचित ऐसा तीखा आघात था, जो उसकी स्वकीयता को ही लीलने को उद्धत था। उसके प्रतिरोध में नवजागरण के रूप में विभिन्न विचार-मंचों से उन्नीसवीं, शताब्दी में जो आवाज उठी थी, वह पण्डितों की भाषा थी, जो सामान्य जन के लिए अबूझ-अगम परिणामतः साम्राज्यशाही भाषा की तरह विजातीय थी। दिशाहारा दशा से उत्तीर्ण होने के लिए और निरन्तर सघन होते तमस से उद्धार पाने के लिए गणदेवता को जिस प्रकार की प्रतीक्षा थी, वही आलोक-स्तम्भ रामकृष्ण के रूप में आविर्भूत हुआ था। संशय के बीच आश्वस्ति और अनास्था-आतंक के बीच आस्था की ज्योति लिये रामकृष्ण का धरती पर अवतरण हुआ था। उनकी बतकही की गँवई शैली तथा ग्राम्य जीवन-चर्या में लोगों को समाधानमूलक आत्मीय विकल्प दिखाई पड़ा। भरोसा की भिति जैसे उपलब्ध हो गयी हो।

और परमहंसदेव ने अपनी लीला–चर्चा और घरऊ व्यवहार-पाटव से पण्डित, गँवार, पापी–पुण्यधर्मी सबको आश्वस्त कर दिया कि पाप की चिन्ता ही पाप है। और पुण्य की चिन्ता ही पुण्य है। धर्म जीने पर ही धर्म करता है, धर्म की मचान पर या आचार्य के पीठ पर बैठकर भाषण देने पर धर्म नहीं रह जाता। जिस गूढ़ सत्य को समझाने के लिए पण्डित आचार्य और संस्कृति –नायक वेद-उपनिषद का गूढ़-गाढ़ भाषा में मंचों से उच्च स्वर में गम्भीर उच्चारण करते रहते थे, उसे ही घरेलू बतकही की आत्मीय शैली में, साधारण गँवार आदमी की तरह हँसी ठिठोली करते, परमहंसदेव उजागर कर देते थे। ठाकुर की उद्भावना शशधर पण्डित जैसे विशिष्ट शास्त्रवेत्ता के लिए तीखी चुनौती बन जाती थी, लेकिन ठाकुर के निजी सेवक निरक्षर लाटू और निरक्षरा भक्तिमती अधोरमणि (गोपाल माँ) तथा ठाकुर-कक्ष की गँवार सेविका वृन्दा को उनकी हँसी, विनोद और कोमल बोली-बतकही में केवल अँजोर ही अँजोर दिखाई पड़ता था।

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